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Wednesday 16 October 2019

कसमे, वादे, प्यार, वफा सब बातें हैं, बातों का क्या

मधुसूदन पाटिल(व्यंग्यकार, हिसार).महाभारत और रामायण की पुण्यभूमि पर टिकट मंच सजा हुआ है। राम-लखन की जोड़ी मंच पर मंत्रणारत है। प्रधान सुरक्षाकर्मी और बजरंगजी की लाल धज और ध्वजा देखकर कुछ दरबारी बिदक रहे हैं। पंडाल में गीत गूंज रहा है- हम मरेंगे, हम जिएंगे ए वतन तेरे लिए। उम्मीदवारों को सर्दी में गर्मी का एहसास हो रहा है। आसमान में बादलों की गर्जना बेमौसमी बादल की तरह लग रही है।

मंचासीन सोच रहे हैं, धन घमंड नभ गरजत घोरा, सिंहासनहीन मन डरपत मोरा। जैसे-जैसे भाषणों की बिजलियां कड़क रही हैं प्रार्थियों की प्रीति पार्टी के प्रति डांवाडोल हो रही है। बगावती गर्जन-तर्जन के बीच प्रधान का मन आसन छिन जाने की आशंका से कांप उठता है। जैसे आसमानी बिजली कभी दमकती है, कभी मंद हो जाती है, वैसे ही उम्मीदवारों की आस्था पार्टी में डगमगाने लगती है। विकट परीक्षा में पास परीक्षार्थी गाता है, ' भूलेगा जिस दिन तुम्हें वो दिन जिंदगी का आखरी दिन होगा।' फिसड्डी गाता है, 'वफा जिनसे की बेवफा हो गए, वादे मोहब्बत के हवा हो गए।' बेबस भगत गाता है, 'तड़पाओगे तड़पा लो, हम तड़प-तड़प कर भी तुम्हारे गीत गाएंगे।'

विभीषण दरबार से वॉकआउट कर लंका ढहाने की घोषणा करता है। नेताओं के आश्वासन सुनकर लौटा वोटर शवासन में लेटकर गाता है, इधर जाऊं या उधर जाऊं बड़ी मुश्किल में हूं, किधर जाऊं? तेरी हां भी झूठी, ना भी झूठी सारा कारोबार झूठा। जैसे जलभरे बादल धरती की ओर झुकते हैं वैसे ही पूर्व मंत्री वोटरों के चरणों में झुकते नजर आते हैं। पहाड़ वर्षा की बूंदों को सहते हैं, वैसे ही भूतपूर्व मंत्री भ्रष्टाचार के आरोपों को मुस्कुराकर सहते हैं। थोड़ी-थोड़ी वर्षा से जैसे छोटे नदी नाले उछल-उछलकर बहते हैं, वैसे ही वर्करगण थोड़ा चंदा लेकर थोड़ा भाषण देकर इतरा-इतराकर चलते हैं। बादलों से गिरता निर्मल जल जमीन पर आकर मैला हो जाता है। वैसे ही बगुलापंखी कुर्ते-पजामे घबराहट के पसीने व जनता के जवाबी धूल से मटमैले हो जाते हैं। छोटी-छोटी नदियां मिलजुल कर बड़ी नदी की ओर जाने लगती हैं। वैसे ही निर्दलीय समझौते की दलदल में धंसते जाते हैं। हरी घास से मैदान भर जाते हैं।

पगंडडी छुप जाती है वैसे ही पोस्टरों और घोषणापत्रों में आदर्श और सिद्धांत लुप्त हो जाते हैं। जैसे ही मेंढकों के टर्राने से दिशाएं गूंज उठती हैं, वैसे ही भोंपुओं से देशभक्ति गीत घरघराने लगते हैं। व‌ृक्षों पर जैसे नए पत्ते उग आते हैं, वैसे ही शहरभर में रंग-बिरंगे झंडे और बैनर उग जाते हैं। वर्षा ऋतु में आक और जवास के पत्ते छिन जाते हैं वैसे भी नेताओं के दिल-दिमाग बिना सिद्धांतों के हो जाते हैं। जरा-सी बूंदाबांदी पर जैसे धूल दब जाती है वैसे ही लुभावने वादों में जनता के मुद्दे दब जाते हैं। त्योहारी बाजार में दुकानदार ग्राहकों को लुभाते हैं। बाय वन, गेट वन फ्री।

बोलोजी तुम, लालाजी तुम क्या-क्या खरीदोगे? बहनजी मंडी में प्याज का भाव सुनकर सेब लेकर घर आ जाती हैं। फ्री का धनिया 25 का 100 ग्राम है। शाम के समय गली मोहल्ले में जुगनुओं के झुंड टिमटिमाते हैं, वैसे ही छुटभैये नुक्कड़ सभाओं में चमचताते हैं। भारी वर्षा में नदियां जैसे सारे किनारे तोड़कर बहती हैं, वैसे ही नेता भाषण और आचरण की सवारी मर्यादाएं तोड़ देते हैं। नेता समस्याओं को समूल उखाड़ने की बात करते हैं, जैसे किसान खरपतवार उखाड़ने की बात करते हैं।


अब सबकी नजरें स्वयंवर पर टिकी हैं। सीता और द्रौपदी के स्वयंवर के सीन मिक्स हो रहे हैं। रावण के वंशज सीता के अपहरण के सपने देख रहे हैं। कौरवों की दृष्टि मछली की आंख की बजाय द्रौपदी पर फोकसित है। कौरव पांडवों के बीच प्रॉपर्टी डीलरों की तरह रियल इस्टेट की सौदेबाजी चल रही है।


अर्जुन और कर्ण तीरंदाजी की बहस में उलझे हैं। भीष्म पितामह और विदुर जैसे प्रशासनिक अधिकारी बलात सेवानिवृत्ति की मांग कर रहे हैं। धृतराष्ट्र चिंतित हैं कि बेटों की प्रॉपर्टी का क्या होगा? जनक डिप्रेशन में हैं कि बेटियों को कौन बचाएगा। वशिष्ठ और विश्वामित्र ने ठेके पर सलाहकार का काम करने मना कर दिया है। श्रीकृष्ण का रिकॉर्ड मां फलेषु कदाचन पर ही अटका हुआ है। चुनावी समर और स्वयंवर गर्दोगुबार जब गुजर जाएगा तब मलंग याद आएगा... 'कसम वादे प्यार वफा सब बाते हैं बातों का क्या।



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मधुसूदन पाटिल, व्यंग्यकार, हिसार।


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